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pandeyji
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Posted on 12-15-20 12:45
AM
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खोला तरे सागर तरे संघार तर्न गारो भो सैयौ चोटी मारिएको सांस फेर्न गारो भो जिन्दगी यो बग्यो तेता भेल्बाड़ी बग्यो जता बहिरहे बहिरहे बहिरहे बहिरहे बहिरहे पाईला हरु चलिरहे ठेगाना पाउन गारो भो टुक्रा टुक्रा सपना हरुले महल सजाउन गारो भो सिमल को भुवा उड्यो जता बेघ हावा को चल्यो जता उडिरहे उडिरहे उडिरहे उडिरहे उडिरहे - साईली
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Logankobaje
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Posted on 12-15-20 10:00
AM [Snapshot: 150]
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माफ पाम है पाण्डे काजी कमेन्ट गर्न ढिली भयो , हिजो जात्रे जात्रा हेरेर सुतेको ढिलो उठेछु , कविता राम्रो छ , यो सुनेर bendict ज्युको बाल साहित्य याद आयो
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pandeyji
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Posted on 12-15-20 11:18
AM [Snapshot: 192]
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Bennedict
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Posted on 12-17-20 12:05
PM [Snapshot: 360]
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मेरो केही सुधार थप्दैछु। मलाई यसको मुल सार चै मनपर्यो। खोला तरे, सागर तरे, संघार तर्न गाह्रो भो सैयौ चोटि मारिएको सांस, अब फेर्न गाह्रो भो जिन्दगी यो बग्यो मात्र त्यता भेल बाढिको जात्रा बग्यो जता बहिरहे, सुसाइरहे, अन्तराल बगिरहे। पाइलाहरु चलिरहे, ठेगाना पाउन गाह्रो भो टुक्रा टुक्रा भएका सपनाहरुले महल सजाउन साह्रो भो सिमलको भुवा उड्यो जता हावाको बेग चल्यो उडिरहे, चलिरहे निस्तेज घुमिरहे।
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